गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

प्राची की तलाश...


           ये कविता गुरुदेव दीपक बाबा और  उनकी काल्पनिक नायिका 
                                      प्राची  के चरणों में समर्पित है.. 
                                                


मन क्यों उदास है??
शायद इसे किसी की तलाश है!
ये जानता है वो है इससे बहुत दूर,
फिर भी ढूंढता  उसे अपने आस पास है|
मन क्यों उदास है???

                   
शायद ये तलाश मे है उस परछाई के….
                    
जिसे इसके आस्तित्व पर ही अविश्वाश है|
                   
शायद इसे अपनी मुट्ठी मे ,
                   
सूखी रेत को बंद करने की आस है|
                   
मन क्यों उदास है????
वो कही नहीं है,
इसे इसका एहसास है.
फिर भी वो मिलेगा इसे,
इसे इसका विश्वास है|
मन क्यों उदास है???






शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

एकाकी रिश्ते

इन रिश्तो के अनुबंधों में,जब एकाकी हो जाता हूँ,
जब अपनी ही परछाई को,खुद से ही उलझता पाता हूँ
तब जीवन जीने की इच्छा,कुछ और प्रबल हो जाती है.
जब अपनी ही खुद की छाया, खुद से ही बड़ी में पाता हूँ
इन रिश्तो के अनुबंधों में,जब एकाकी हो जाता हूँ

ये रिश्ते तो ऋतुओं जैसे,झट पतझड़ में मुरझाते हैं,
जो जीवन में हो ऋतु बसंत,ये प्रेम पुष्प बिखराते हैं
इस हार जीत के रिश्तों में,जब पीछे में रह जाता हूँ,
कही दूर किसी कोने में जा,खुद की ही ऋचाएं गाता हूँ
इन रिश्तो के अनुबंधों में,जब एकाकी हो जाता हूँ

कुछ लिखूं बोलू या मूक रहूँ,इन रिश्तों का क्या रूप कहूँ??
रिश्तों के इस अवशेषी घट को,मैं हार कहूँ या जीत कहूँ??
जब जाह्न्वी के तट पर बैठा,इस घट को डुबोने जाता हूँ,
तब मोक्ष प्राप्ति की ये इच्छा,कुछ धुंधली सी हो जाती है,
मैं  नैनों के इस जलधि प्रवाह को,रोक नहीं फिर पाता हूँ,
इस घट को माथे से ही लगा,अपना प्रणाम पहुचता हूँ
इन रिश्तों के अनुबंधों में,जब एकाकी हो जाता हूँ

गुरुवार, 10 नवंबर 2011

मैं हिन्दुस्थान का हिन्दू हूँ,मैं आतंकी हूँ

मैं हिन्दुस्थान का हिन्दू हूँ,मैं आतंकी हूँ                    
मैं  सर्व धर्म समभाव सिखाता ..
मानवता की बात बताता,
हर धर्मस्थल पर शीश नवाता,आतंकी हूँ...
मैं हिन्दुस्थान का हिन्दू हूँ,मैं आतंकी हूँ...
वो धरा गोधरा की हो या,
वो जनमभूमि हो राम की. 
हो मथुरा काशी की धरती,
या सोमनाथ के धाम की..
हर बार में अपनी बलि चढ़ाता आतंकी हूँ
मैं हिन्दुस्थान का हिन्दू हूँ,मैं आतंकी हूँ.....

मैं सत्य अहिंसा के दर्शन को ,
जीने का आधार बनता 
बाबर अब्दाली के वंशज को भी,
मैं  अपने गले लगाता
नित नए नए अत्याचारों पर,
धैर्य दिखता,सहता जाता आतंकी हूँ..
मैं हिन्दुस्थान का हिन्दू हूँ,मैं आतंकी हूँ                                         

पर बहुत हो चुकी धैर्य परीक्षा, 
अब चन्दन अनल दिखायेगा.
भाई भाई के नारे को,
अब फिर से परखा जायेगा.
गर भाई हो कौरव जैसा, 
तो अर्जुन शस्त्र उठाएगा..

गाँधी का ये गाँधी दर्शन,
अब चक्र सुदर्शन लायेगा.
डंडे वाला बूढ़ा गाँधी ,
अब सावरकर बन जायेगा.
शत वर्षों से सहते आये,
अब और नहीं सहा जायेगा.
अब हिन्दुस्थान का हर हिन्दू,
राणा प्रताप बन जायेगा.  

तब बाबर की जेहादी सेना में,   
उथल पुथल हो जाएगी.
गुजरात की कुछ बीती यादें, 
फिर से दोहराई जाएँगी.
जौहर की बाते बीत गयी,
अब चंडी शस्त्र उठाएगी
गर हुआ जरुरी तो बहने,
प्रज्ञा ठाकुर बन जाएँगी.....

पर पांडव ने भी कौरव को,
अंतिम सन्देश सुनाया था.
खुद योगेश्वर ने जाकर भी,
दुर्योधन को समझाया था.                                            
तुम हिंसक आतातायी हो,
तुम कौरव हो पर भाई हो.
यदि जीना है तो जीने दो,
या मरने को तैयार रहो..
ये बात सभी को समझाता मैं आतंकी हूँ
मैं हिन्दुस्थान का हिन्दू हूँ,मैं  आतंकी हूँ.....


सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

दिवाली का दीपक



एक पुरानी कविता के साथ अपनी उपस्थिति पुनः दर्ज करा रहा हूँ 







मैं दिवाली का दीपक हूँ..
अमर,
अनश्वर,
युगों युगों से..
इस विश्व का अंधकार मिटाने को,
हर साल जलाया जाता हूँ..
अपने अस्तित्व विवेचन में,
इश्वर पूजा ही पाता हूँ..........



मेरे पीड़ा के उजाले में,
खुशियों की ज्योति पलती है..
कहीं जल जल कर बुझ जाती है,
कहीं बुझ बुझ कर भी जलती है...
मेरे युग युग की पूजा का,
हे इश्वर मुझको दो प्रतिफल..
इस तिमिर विनाशक बेला में
जलना मेरा तुम करो सफल....

इश्वर ने मेरा सृजन किया
परहित का धर्म निभाने को..
इस अंधकार की सृष्टी को,
जल कर रोशन कर जाने को....

मैं तिमिर नाश कर सकता हूँ
ये अंतस का अँधियारा है
इस अंतस के अंधियारे का
हे प्रभु मेरे तुम नाश करो
मेरे जलने की पीड़ा का
कुछ तुम भी तो एहसास करो

मैं युग युग से जलता आया हूँ,
मैं युगों युगों जल जाऊंगा...
मैं दिवाली का दीपक हूँ,
मैं अपना धर्मं निभाऊंगा..

गुरुवार, 4 अगस्त 2011

एकाकीपन


कुछ व्यस्तता और व्यक्तिगत कारणों से कई दिनों तक ब्लॉग पर आना नहीं हुआ...१० साल पहले लिखी इस कविता को आज भी अपने करीब पाता हूँ..

                   एकाकीपन के साये में ,घुटता रहता हूँ  मैं  अक्सर
                   भीड़ भरे बाजारों में  भी, तन्हा रहता हूँ  मैं  अक्सर|
तन्हाई क्या होती है,ये मेरा मन कहता है अक्सर..
           नक्षत्रों के मध्य चंद्रमा,जैसे छिपकर रहता अक्सर|

           मेरे अपने मुझको अपना, कहते भी रहते है अक्सर..
            किन्तु समय की अग्नि परीक्षा, में उनका मिलना है दुष्कर|
भीड़ भरे बाजारों मै भी तन्हा रहता हूँ  मै अक्सर|

तन्हाई के आलम में,मै सोचा करता हूँ  अक्सर..
क्या जुर्मं है उस तारे का,
जिसने देखा नहीं सवेरा, दूर गगन की छाँव में रहकर?

कभी कभी ये तन्हाई,जीना कर देती इतना दुष्कर..
किसी शांत निर्जन कोने में,अश्रु बहता हूँ घुट घुट कर |

     मन की ब्यथा कभी कभी,रुक जाती है आ के अधरों पर.
क्योंकि मेरी तन्हाई पर,हँसने वाले मिलते अक्सर|

एकाकीपन के साये मेघुटता  रहता हूँ मै अक्सर
भीड़ भरे बाजारों मै भी, तन्हा रहता हूँ मै अक्सर|



शनिवार, 9 जुलाई 2011

रिश्तों की रेल


       हम दोनों,
जैसे रेल की दो पटरियां..
दूर तक चलतीं है साथ,
मगर नहीं होता है,
साथ होने का एहसास...
ना ही है पास आने की कोई चाह,
ना ही है दूर जाने की राह...
चाहे हो वह दिन का उजाला,
चाहे हो वो काली रात स्याह.
हम दोनों चलतें है एक साथ....
किसी ने एक पत्थर मारा तो,
दर्द की आवाज दूर तक जाती है..
हमारे रिश्तों की रेल भी तो,
इन्ही पटरियों से हो कर आती है..
        हम दोनों ...
जैसे रेल की दो पटरियां..

रविवार, 19 जून 2011

तुम्हारे लिए कुछ अनकही


मेरे अव्यक्त विचारों की,
माला कविता बन आएगी 
इन अधरों की कम्पित वीणा,
बस राग तुम्हारे गाएगी               
इस जनम की सिंदूरी रेखा,
मिट गयी प्रिये ,प्रतिवाद नहीं 
जन्मो और सदियों की कड़ियाँ ,
मैं तोड़ प्रिये फिर आऊंगा....
तब अरुणोदय की बेला में,
तुमको सिंदूर लगाऊंगा
जन्मो से कुंठित ये पीड़ा     
फिर,मोक्ष गति को पायेगी..
मेरे अव्यक्त विचारों की,
माला कविता बन आएगी ......

गुरुवार, 26 मई 2011

ख्वाहिश


                
अभी कुछ और करना है, इरादे रोज करता हूँ..
इसी ख्वाहिश में  जीता हूँ इसी ख्वाहिश में मरता हूँ |

सितारों की चमक में खो गयी है चंद तस्वीरे..
इन्ही धुंधले  हुए ख्वाबो में, अब भी रंग भरता हूँ |

मेरे ख्वाबो की तन्हाई, तुम्हे मेरे पास ले आई..
मै अपने दिल से जीता हूँमै तेरे मन का दिखता हूँ |

तेरे हालत को समझूँ  या खुद के दिल को समझाऊं..
तेरे मुझको न खोने की, इसी ख्वाहिश से डरता हूँ|

जवाजे-इश्क की कतरन को ले कर अभी बैठा हूँ..
ये कैसी हर्फे-गुरबत है, मै तेरा नाम लिखता हूँ |

ये कश्ती डूब भी जाए,  मै मंजिल पा ही जाऊंगा..
मेरा हासिल ही तूफा है,मै खुद की राह चुनता हूँ |

अभी कुछ और करना है, इरादे रोज करता हूँ..
इसी ख्वाहिश में जीता हूँ,इसी ख्वाहिश मे मरता हूँ |


जवाजे-इश्क   : justification of love 
 हर्फे-गुरबत: poverty of words 

रविवार, 15 मई 2011

आंसू का इक कतरा

 
             उदास रात में आँसू का इक कतरा
             हृदय से निकलकर आँखों में उतरा
               ऐसा महसूस हुआ शायद,
                 इसने कर दिया कुछ,
                जख्मो को फिर से हरा..
              उदास रात में आंसू,का इक कतरा

                  आज भी कहता है ,
                 आँसू का ये कतरा..
                इक ख्वाब था शायद,
                जो रह गया अधूरा!
             उदास रात में आँसू का इक कतरा

           जिन्दगी मे कुछ तो रहता है अधूरा..
             इस ख्वाब के अधूरेपन से ही,
              आँसू के इस कतरे का
                 अस्तित्व है पूरा..
          उदास रात में आंसू का इक कतरा
          हृदय से निकलकर आँखों में उतरा…..

मंगलवार, 3 मई 2011

छोटा आदमी

                         
                                                                                                    
                           मैं कौन हूँ???
                छोटा आदमी या बड़ा आदमी

                       छोटा आदमी,
                  जोड़ता है इंटों को
               बनाता है ऊँची इमारतें
           होटल और महंगे आशियाने
                  बड़े आदमी के लिये..

                  बड़ा आदमी,
           चलाता है बुलडोजर,
    छोटे आदमी के आशियाने पर,
   चलाता है कार, छोटे आदमी के ऊपर ..
  चलता है गोलियां,रोटी मांगते इंसानों पर...
        कुछ देता भी है बड़ा आदमी,
         चंद  सिक्के मे तुली गयी...
       जिन्दगी एक मजदूर की,
                  " मुआवजा"

          छोटी सुई और बड़ी तलवार..
दोनों की,सदियों से यही कहानी होती है,
      तलवार बड़ी हो कर भी तोडती है,
सुई छोटी हो के भी दो बिछड़ों को जोडती है...

                    मैं कौन हूँ???
          छोटा आदमी या बड़ा आदमी

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

सत्य से साक्षात्कार

आज अचानक हो गया सत्य से सामना,
करना पड़ा मुझे सत्य से साक्षात्कार,
कटु ही सही,
पर सत्य तो सत्य है.
आज भी है,कल भी था.
कल भी रहेगा …..
स्वीकार करना पड़ा उस सत्य को.
जिसकी सत्यता को,
अब तक करता रहा था अस्वीकार|
आज करना पड़ा मुझे सत्य से साक्षात्कार|

संवेदनाओ और भावनाओ के सूर्य को,
अंहकार और तृष्णा का राहु ,
बना रहा है,
प्रतिक्षण,
अपना आहार|
आज करना पड़ा करना पड़ा मुझे,
सत्य से साक्षात्कार|

सत्य तो ये है,
ब्यर्थ है ये रिश्ते..
ब्यर्थ है ये एहसास
ब्यर्थ है इनका प्यार,
आज करना पड़ा करना पड़ा,
मुझे सत्य से साक्षात्कार!

निज स्वार्थ की चाह में,
मैं और अहम् की राह में,
अहंकारी सोच ने,
कर दिया है,
इन रिश्तो का,
इन अहसासों का,
संहार!
आज करना पड़ा,
मुझे सत्य से साक्षात्कार.....

शनिवार, 26 मार्च 2011

कवि के शब्द

ये शब्द मेरे हैं अमर सदा,
ये शब्द नहीं मर सकतें हैं...
हर बार इन्ही शब्दों ने मुझे,
निज संजीवन से जिलाया है...
निष्प्राण सरीखी काया को,
फिर विजय कवच पहनाया है.......


हर बार इन्ही शब्दों ने मुझे प्रेरणा दी है....
इन रिश्तों के कोलाहल में,
अपने मन की कुछ कहने की
अपने मन की कुछ करने की….

इन शब्दों की जननी पीड़ा,
पीड़ा के उर से ये निकले..
ये शब्द मेरे प्रह्लाद सरीखे
हर अग्निपरीक्षा में हैं खरे…..

इन शब्दों की ही महिमा से,
मानवता का है कलुष धुला..
ये शब्द बन गए नीलकंठ,
मुझको पीड़ा का गरल पिला….


इस जलधि शब्द के ये प्रवाह
हर बार मुझे ये कहते हैं..
ये शब्द मेरे हैं अमर सदा,
ये शब्द नहीं मर सकतें हैं….

रविवार, 13 मार्च 2011

कुछ बातें कृष्ण से

मित्रो,मेरी एक बुरी आदत है कविता लिखने से पहले प्रसंग लिखना.. हम सभी के जीवन में ऐसा समय आता है जब हम अपने ही रिश्तो,भाई बंधुओं को अपने सामने शत्रु बना पातें है...कई लोग महाभारत के अर्जुन की तरह इस कशमकश में पड़ जातें है की अपनों से कैसे टकराएँ कैसे उनपर शस्त्र उठाएं.. कलयुग के अर्जुन( शायद में उसमें अपनी छवि देखता हूँ,शायद आप भी) का कृष्ण से कुछ प्रश्न या दुविधा इस कविता के माध्यम से व्यक्त कर रहा हूँ..आशा है आप को पसंद आये...
...........................................................................................
कुछ बातें कृष्ण से

हे कृष्ण मुझको बतला दो,
इस कलयुग के महाभारत में..
मैं कैसे शस्त्र उठाऊंगा…
जब नकुल भीम और कुंती को,
कौरव सेना में पाऊंगा………..


पांचाली हो या गांधारी,
या हो दुर्योधन अत्याचारी..
सब एक साथ हैं खड़े हुए….
हे कृष्ण यही है द्वन्द मेरा,
कोई कैसे इनसे युद्ध लड़े………….

हे केशव मुझको मुक्त करो,
इन धर्म सत्य की बातों से…
मुझको कुंठा से होती है,
इन गीता के उपदेशों * से….
इस युग की धर्मपरीक्षा में,
मैं अधर्मी ही कहाऊंगा…
ये नर नारी सब अपनें हैं,
मैं फिर वनवास को जाऊंगा…
तुम भी रणछोर कहाये थे,
मे तुमको ही दोहराऊंगा…

इस पांचजन्य के शंखनाद को, रोको
मेरी कुछ सुन लो…..
इस धर्म अधर्म की गीता में ,
जा कर कुछ नए श्लोक गढ़ों….
यदि गीता के परिशोधन में,
हे कृष्ण तुम्हे कठिनाई हो…
कौरव सेना तैयार खड़ी,
तुम जाकर उनके साथ मिलो..
फिर भूल तुम्हारी महिमा को,
मै फिर गांडीव उठाऊंगा…….



चाहे विजय मिले या वीरगति,
मैं तुम पर शस्त्र चलाऊंगा………
चाहे विजय मिले या वीरगति,
मैं तुम पर शस्त्र चलाऊंगा………



................................
माननीय कौशलेन्द्र जी के सुझाव का आभार
उनके कहे के अनुसार में पंक्तिया बदल रहा हूँ..
पूर्व पंक्ति: मुझको कुंठा सी होती है इन गीता के एहसासों से
संपादन के बाद: मुझको कुंठा सी होती है इन गीता के उपदेशों से..

धन्यवाद् कौशलेन्द्र जी
..................................

शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

लोकतंत्र

मित्रो,
कई देशों में आज कल लोकतंत्र के लिए क्रांति हो रही है..भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है..लेकिन हमारे सिस्टम और इसको चलने वालों ने इसे कौन सी दशा और दिशा दी है..इसी की दुर्दशा पर लिखी गयी कुछ पंक्तियाँ..


जब संसद के गलियारे में,
ये सोच विचरने लगती है..
गाँधी के कपड़े पहने हुआ,
ये बाहुबली है या नेता है...
तब लोकतंत्र क्या सोता है??

जब संसद की सीमा के अन्दर,
रुपये लहराये जाते हैं....
जब सत्ता की बलिवेदी पर.
सिधांत चढ़ाये जाते हैं,
जब दूध की नन्ही चाहत में,
एक छोटा बच्चा रोता है...
तब लोकतंत्र क्या सोता है??

जब छद्म सेकुलर नारों से,
और सत्ता के हथियारों से,
कार सेवक मारा जाता है....
जब बाबू की घूसखोरी से,
बूढ़ा पेंशन की आँस गंवाता है...
जब पांच सितारा होटल में,
मंत्री जी का कुत्ता सोता है..
तब हाड़ तोडती ठंढक मे,
एक बूढ़ा पहरा देता है..
तब लोकतंत्र क्या सोता है?


जब जेल में बैठा जेहादी अफजल,
संसद में खून बहता है..
जब सीमा पर लड़ता प्रहरी,
ताबूत में वापस आता है..
इस लोकतंत्र की रक्षा में,
अपना सर्वस्व लुटाता है..
तब लाल किले का एक दलाल,
अफजल की गाथा गाता है...
जब उस शहीद का बूढ़ा बाप,
वो वीर पदक लौटता है....
सर्वस्व न्योछावर करने का
जब हश्र यहाँ ये होता है......
तब लोकतंत्र क्या सोता है??
तब लोकतंत्र क्या सोता है??

कविता का प्रिंट लेने के लिए कृपया निचे क्लीक करें




आप को ये कृति कैसी लगी अपने विचार कृपया निचे लिखें..आप के विचार महत्वपूर्ण संबल होंगे मेरे लेखन में..

शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

वो पेड़ आज भी अकेला खड़ा है.



एहसासों की चादर मे लिपटे हुए
वक़्त की धूप मे अलसाये हुए ख्वाब
अब अंगड़ाई लेने लगे है ........

शायद उस बंजर जमीन में
जो तुमने बीज बोया था
आँसूओं की नमी से..
उस बीज मे अंकुर निकल रहा है..
कुछ बरस बाद ये बीज पेड़ बन जाएंगे..

ये ख्वाब एहसासों की चादर हटायेंगे
कुछ ख्वाब टूटेंगे, कुछ सच हो जाएंगे....
जो मंजिल हमने साथ देखी थी,
वहां पहुचने पर मेरे ख्वाब मुझे..
एकाकी पाएंगे...........

कुछ पथिक पेड़ के नीचे ठहरेंगे बातें करेंगे,
फिर अपनी मंजिल की ओर बढ़ जाएंगे..
हर घंटे दिन बरस .......
पेड़ को अकेला खड़ा पायेंगे......

वो पेड़ आज भी अकेला खड़ा है..
उस मंजिल पर,जो हमने साथ देखी थी...
सब कुछ तो है..
पर तुम्हारे न होने का एहसास
इस मंजिल पर, इस पेड़ के नीचे...
टूटे पत्तों की तरह,बिखरा पड़ा है.......
वो पेड़ आज भी अकेला खड़ा है..
वो पेड़ आज भी अकेला खड़ा है..


इस कविता को प्रिंट करने के लिये निचे क्लीक करें..

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

निर्मल वर्मा की"जलती झाड़ी"

अभी कुछ दिनों पहले की बात है..
शनिवार का दिन था..
दफ्तर के कार्यकलाप से छूट्टी थी,
आज पीनी मुझे साहित्य की घुट्टी थी..
आलमारी से पद्म विभूषण निर्मल वर्मा की,
"जलती झाड़ी" पुस्तक निकाल लाया ,
साहित्य सुधा के अपार सागर में..
मैने दो-एक डुबकियाँ था लगाया...
चंद पृष्ठों के बाद..
मेरा दूरभाष घनघनाया,
मेरे वरिष्ठ अधिकारी ने,
मेरे साहित्य रस पान पे था ब्रेक लगाया .....
साहब ने मुझे,
संस्था की मुख्य शाखा पर था बुलवाया ...
साथ में पूरे साल का,
लेखा जोखा भी मंगवाया...
मैं थोडा सहमा,थोडा घबराया,
जल्दी ही संयत होते हुए,
विमानतल की ओर कदम बढाया..

रास्ते में मुझे,
सफ़र के लम्बे होने का ध्यान आया.
अफ़सोस हुआ "जलती झाड़ी" भी जल्दबाजी में
मैं घर ही भूल आया
तभी जहन में ये ख्याल आया,
मैं हिंदुस्तान की राजधानी में हूँ श्रीमान..
विमानस्थल पर खरीद लूँगा..
निर्मल की "जलती झाड़ी" या प्रेमचन्द्र की गोदान....
ये सोच कर मैं मन ही मन मुस्कराया..
अब जा कर मेरी साहित्यिक बेचैनी को,
थोडा चैन आया ..
विमानतल पर पंहुचा ,
कुछ खुबसूरत चेहरों ने..
थोडा मुस्कराकर,कुछ स्वागत शब्द सुनाकर ,
अन्दर जाने का रास्ता बतलाया ...
इन सबके बिच मेरा मस्तिष्क ढूंढ़ रहा था,
निर्मल जी की "जलती झाडी" का साया...
अन्दर गया,पास में था एक पुस्तक क्रय केंद्र,
वहां पहुंचा तो अपने आप को,
पुस्तकों से घिरा पाया...
पर ये क्या???
कुछ के नाम शायद पढ़ सकता था..
कुछ के नाम भी नहीं पढ़ पाया.....
ये सब विदेशी अंग्रेजी किताबें थी..
जिनमें थी निहित
शेक्सपीयर और केट्स की माया...

हिम्मत की थोडा और आगे बढ़ा,
अंग्रेजी स्टाइल में था एक देसी सेल्समैन खड़ा
मैं भी गया और अंग्रेजी झाड़ी...
बोला "कैन आई गेट निर्मल वर्मा की जलती झाडी"
सेल्समैन ने सर उठाया..
कुछ इस तरह से मुझे देखा जैसे..
मैकाले के इस देसी भारत में..
ये परदेशी गाँधी कहाँ से आया????

थोडा मुस्कराकर उसनें फ़रमाया ,
सर"जलती झाडी' पे डालो पानी..
पढना शुरू करो अब,
विलियम वर्ड्सवर्थ की कविता रूमानी..
मैं बोला भईया मैं हूँ ..
गांव वाला सीधा साधा हिन्दुस्तानी,
अगर नहीं है निर्मल जी की "जलती झाडी"
तो दे दो मुझको,
मुंशी प्रेमचंद्र की कोई कहानी..

अब सेल्समैन का पारा थोडा ऊपर चढ़ा
उसने कहा अगर प्रेमचंद्र को पढना है.
तो एअरपोर्ट पर तू क्यों है खड़ा???
जा किसी आदिवासी स्टेशन पर,
वहीँ मिलेगा तुझे ये हिंदी का कूड़ा...
खैर,मैं जैसे तैसे पुस्तक क्रय केंद्र से बाहर आया,
सोचा,ये दुनिया का है इकलौता देश महान..
जहाँ नहीं मिलता मातृभाषा को सम्मान..
कभी सेकुलरिज्म की चक्की में,
पिसतें है हिन्दू..
तो कभी हिंदी का होता है..
हिंदूस्थान में ही अपमान...

अब मुझे आगे था जाना..
सामने खड़ा था वायुयान
अनायास ही याद आये,
भारतेंदु जी और उनका नारा
" बोलो भैया दे दे तान,हिंदी हिन्दू हिंदूस्थान"....

आइये हम सभी सोचें..
हिंदी और हिन्दू तो अब तक,
झेल रहें हैं मैकाले की गुलामी..
क्या अगले गुलामी क्रम में होगा
हम सब का हिंदूस्थान ????

चलिये जाते जाते एक बार फिर
कम से कम दोहरा लें .
" बोलो भैया दे दे तान,हिंदी हिन्दू हिंदूस्थान" ......

“मेरा भारत महान”

रविवार, 9 जनवरी 2011

अब जब नहीं हो तुम मेरे पास,


अब जब नहीं हो तुम मेरे पास,
नहीं लिखता हूँ कोई गीत,
तुम्हारे न होने पर....
नहीं आती है,अब तुम्हारी याद...
नहीं होता है अब ये मन,
तुम्हारी याद में उदास.
अब जब नहीं हो तुम मेरे पास......

कुछ शब्द चुपके से आते हैं.,
विस्मृत स्मृतियों पर,
धीरे से दस्तक दे जातें हैं..
अब नहीं पिरो पाता हूँ, इनको अपनी कविता में..
अब नहीं दे पाता हूँ ,इन शब्दों को अपनी आवाज..
अब जब नहीं हो तुम मेरे पास....................

अब जब नहीं हो तुम मेरे पास..
यूँ ही बीत जातें हैं ये दिन,
बरसों हो गए, रूकती नहीं है,
कभी ये काली स्याह रात ...
अब जब नहीं हो तुम मेरे पास.......

अनजान रास्तों पर, यूँ ही निकल पड़ता हूँ.
कभी गिरता हूँ कभी संभालता हूँ...
अनजाने में महसूस करता हूँ,
कुछ पल के लिये तुम्हारा साथ..
ये जानते हुए भी की मेरे हाथों में,
अब नहीं है तुम्हारा हाथ...
अब जब नहीं हो तुम मेरे पास..........

ये आँसू अब कभी नहीं बहते हैं,
मन की पीड़ा सबसे नहीं कहतें हैं,.
अगली बार जब तुम मिले,
तो हर लम्हा आँखों मे समेट लेंगे
इसी प्रत्याशा में पलकों पे रुके रहते हैं .....

ये आँसू ...
अब नहीं करातें हैं,
तुम्हारे दूर जाने का एहसास...
अब जब नहीं हो तुम मेरे पास.......


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