कुछ व्यस्तता और व्यक्तिगत कारणों से कई दिनों तक ब्लॉग पर आना नहीं हुआ...१० साल पहले लिखी इस कविता को आज भी अपने करीब पाता हूँ..
एकाकीपन के साये में ,घुटता रहता हूँ मैं अक्सर…
भीड़ भरे बाजारों में भी, तन्हा रहता हूँ मैं अक्सर|तन्हाई क्या होती है,ये मेरा मन कहता है अक्सर..
नक्षत्रों के मध्य चंद्रमा,जैसे छिपकर रहता अक्सर|
नक्षत्रों के मध्य चंद्रमा,जैसे छिपकर रहता अक्सर|
मेरे अपने मुझको अपना, कहते भी रहते है अक्सर..
किन्तु समय की अग्नि परीक्षा, में उनका मिलना है दुष्कर|
भीड़ भरे बाजारों मै भी तन्हा रहता हूँ मै अक्सर|
तन्हाई के आलम में,मै सोचा करता हूँ अक्सर..
क्या जुर्मं है उस तारे का,
जिसने देखा नहीं सवेरा, दूर गगन की छाँव में रहकर?
कभी कभी ये तन्हाई,जीना कर देती इतना दुष्कर..
किसी शांत निर्जन कोने में,अश्रु बहता हूँ घुट घुट कर |
किसी शांत निर्जन कोने में,अश्रु बहता हूँ घुट घुट कर |
मन की ब्यथा कभी कभी,रुक जाती है आ के अधरों पर.
क्योंकि मेरी तन्हाई पर,हँसने वाले मिलते अक्सर|
क्योंकि मेरी तन्हाई पर,हँसने वाले मिलते अक्सर|
एकाकीपन के साये मे, घुटता रहता हूँ मै अक्सर…
भीड़ भरे बाजारों मै भी, तन्हा रहता हूँ मै अक्सर|
man ki gathhen kholti rachna .aabhar
जवाब देंहटाएंआशु भाई महादेवी जी के "आंसू' पुस्तक की याद दिला दी आप ने
जवाब देंहटाएंआप की काव्य प्रतिभा को प्रणाम
यही अंतिम सत्य है की एकाकी आना और एकाकी जाना
baddhiya lagi..
जवाब देंहटाएं@घुटता रहता हूँ मैं अक्सर…
जवाब देंहटाएंsundr kavita... ekakipan bahut darata hai na
bahut sunder likha....
जवाब देंहटाएंAwesome expressions in the post
जवाब देंहटाएंloved it !!