सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

दिवाली का दीपक



एक पुरानी कविता के साथ अपनी उपस्थिति पुनः दर्ज करा रहा हूँ 







मैं दिवाली का दीपक हूँ..
अमर,
अनश्वर,
युगों युगों से..
इस विश्व का अंधकार मिटाने को,
हर साल जलाया जाता हूँ..
अपने अस्तित्व विवेचन में,
इश्वर पूजा ही पाता हूँ..........



मेरे पीड़ा के उजाले में,
खुशियों की ज्योति पलती है..
कहीं जल जल कर बुझ जाती है,
कहीं बुझ बुझ कर भी जलती है...
मेरे युग युग की पूजा का,
हे इश्वर मुझको दो प्रतिफल..
इस तिमिर विनाशक बेला में
जलना मेरा तुम करो सफल....

इश्वर ने मेरा सृजन किया
परहित का धर्म निभाने को..
इस अंधकार की सृष्टी को,
जल कर रोशन कर जाने को....

मैं तिमिर नाश कर सकता हूँ
ये अंतस का अँधियारा है
इस अंतस के अंधियारे का
हे प्रभु मेरे तुम नाश करो
मेरे जलने की पीड़ा का
कुछ तुम भी तो एहसास करो

मैं युग युग से जलता आया हूँ,
मैं युगों युगों जल जाऊंगा...
मैं दिवाली का दीपक हूँ,
मैं अपना धर्मं निभाऊंगा..