शनिवार, 9 जुलाई 2011

रिश्तों की रेल


       हम दोनों,
जैसे रेल की दो पटरियां..
दूर तक चलतीं है साथ,
मगर नहीं होता है,
साथ होने का एहसास...
ना ही है पास आने की कोई चाह,
ना ही है दूर जाने की राह...
चाहे हो वह दिन का उजाला,
चाहे हो वो काली रात स्याह.
हम दोनों चलतें है एक साथ....
किसी ने एक पत्थर मारा तो,
दर्द की आवाज दूर तक जाती है..
हमारे रिश्तों की रेल भी तो,
इन्ही पटरियों से हो कर आती है..
        हम दोनों ...
जैसे रेल की दो पटरियां..

13 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही दर्द भरी और जीवंत कविता

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  2. गाड़ी तो दोनों पटरियों के होने पर ही चलती है। इसलिए पटरियों को भी पटरी बैठानी पड़ती है। और तब रिश्तों की रेल दौड़ पड़ती है।
    अच्छे प्रतीक का प्रयोग किया गया है इस कविता में।

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  3. हम दोनों ...
    जैसे रेल की दो पटरियां
    bahut khoobsurat tulna......

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  4. सधे हुए ,प्रभावित करते शब्द,बेहतरीन

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  5. सुन्दर रचना ..

    कृपया समय निकालकर हमारे मंच सुव्यवस्था सूत्रधार मंच पर आयें और हमारा उत्साहवर्धन करें..
    सामाजिक धार्मिक एवं भारतीयता के विचारों का साझा मंच..

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  6. जिंदगी ऐसी ही है......
    बेहतरीन प्रस्‍तुति

    शुभकामनाएं आपको..........

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  7. बेहतरीन प्रस्‍तुति
    सुंदर शब्द चयन,
    आभार,
    विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

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  8. बहुत सुन्दर मर्मस्पर्शी रचना..अंतस का दर्द बहुत प्रभावी ढंग से उकेरा है..

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  9. सौ फीसदी सही बात.....
    बहुत खूब -- भावमय रचना के लिये बहुत बहुत बधाई

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  10. बहुत ही गहरे जज्बात हैँ... सुन्दर कविता।

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