शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

पुराने वर्ष की स्मृतियाँ और नव वर्ष का स्वागत

कल नव वर्ष आएगा,
साथ में अगणित खुशियाँ लाएगा!
मगर इस वर्ष का पतझड़,
बोझिल आंखे,जागी रातें
कुछ विस्मृत स्मृतियाँ,
ये नव बर्ष भी विस्मृत नहीं कर पायेगा…
कल नव वर्ष आएगा!

कुछ नये रिश्ते बनाएगा,
कुछ महफ़िलों को सजायेगा,
कुछ चूड़ियों को खनकायेगा,
हर शख्श मुस्करायेगा..
मगर इन सब के बीच,
वो पुराने रिश्ते,वो पुराना वर्ष,
बहुत याद आएगा…
कल नव वर्ष आएगा…


ये नववर्ष आएगा उस मजदूर के लिये भी,
जो पत्थरों को तोड़ता है,
ये वर्ष भी हर वर्ष की तरह वो बितायेगा..
शाम को घर लौटेगा तो,
बूढी माँ को अलाव के सामने,
अपने बच्चे को झोपडी में
ठिठुरता पायेगा….
और कुछ करे न करे,नववर्ष में,
फटे कम्बल और टूटे झोपडी मे,
नववर्ष मनायेगा….
वो मजदूर इसे क्या समझ पायेगा???


उत्पन्न करेगा कामनाओ का पल्लव,
बंद हो सकता है तामसी विप्लव,
होगा प्रकृति का नव श्रृंगार
लाएगा ये बसंत का अम्बार,
मगर
वो चूड़ियाँ जो गुम है,
वो पायल जो मूक है,
वो टूटा सा दर्पण,
अतीत की याद दिलायेगा!
कल नव वर्ष आएगा….


इक लकीर सी खीच गयी है,
उधर और इधर में,
अमीर और गरीब में,
नए और पुराने में,
उसमें और मुझ में,
क्या ये नववर्ष उस लकीर को मिटायेगा?????
क्या ये वर्ष अपने अस्तित्व को झुठला पायेगा????
कल नव वर्ष आएगा……


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गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

पापी

तुम्हारा नाम कविता में जो लिखता हूँ ,
तो मैं पापी…
तेरी यादों को अपना मान लेता हूँ
तो मैं पापी…
कभी तुझको भुलाता हूँ,कभी तुझको बुलाता हूँ…
भुलाता हूँ तो मैं पापी….
बुलाता हूँ तो मैं पापी…….


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..................................
मैं हूँ मजदूर,
पत्थर तोड़ के मैं घर चलाता हूँ..
कभी मंदिर की पौढ़ी पर भी,जा के बैठ जाता हूँ..
पढ़ा था धर्मग्रंथों में,प्रभु के सत्य की महिमा
मेरा सच है मेरी बच्ची,
जो भूखे पेट सोयी है….
मैं सच बोलू तो मैं पापी,मैं ना बोलू तो हूँ पापी…..


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शनिवार, 25 दिसंबर 2010

आखिरी सच

वो आखिरी सच था,
जब मैने कहा था...
तुम मेरी जिन्दगी हो,
तुम्हारे लम्स में मेरी धड़कने है..
वो आखिरी सच था,...........

वो आखिरी सच था,जब मैने ख्वाहिश की थी,
हर कदम तुम्हारे साथ चलने की...
तुम्हारे साथ जीने की,तुम्हारे साथ मरने की.......
ढूंढा था तुम्हारे कदमो के निशान को,
अपने ख्वाबो में ….
कही खोया,कभी पाया.
ख्वाबों में ही सही,.
तुम्हारे तबस्सुम को सजाया..
वो आखिरी सच था..................

मै खुश था या उदास??
शायद नहीं बुझ सकी थी,
मेरे अंतर्मन की प्यास..
अब हो चला है मुझको,
तुम्हारे न होने का एहसास
शायद मैं खुश हूँ आज??
शायद मैं खुश हूँ आज??

अब ना ही है कोई अनबुझी प्यास..
ना हो तुम,ना है तुम्हारा ख्वाब.
ना ही है तुम्हारे लम्स का विश्वास .....
अब नहीं है वो हाथो की लकीर,
जिसमे पहरो किया करता था,
तुम्हारे चेहरे की तलाश..
मै खुश हूँ ,बहुत खुश हूँ आज???


मै खुश हूँ ,बहुत खुश हूँ आज.
क्योकि वो आखिरी सच था.....
आखिरी सच था मेरा जिसमे था तुम्हारा एहसास!
तुम्हे पाने की आस..
शायद तब मै था उदास???
शायद तब मै था उदास ???

मै खुश हूँ बहुत खुश हूँ आज...
क्योकि वो सच,आखिरी सच था

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रविवार, 19 दिसंबर 2010

माँ से कुछ सवाल-एक अनाथ के

काफी दिनों से इस विषय पर कुछ लिखने को सोच रहा था..
हालाँकि माँ से सवाल शायद निकृष्टता की श्रेणी का कृत्य हो सकता है..मगर उस पीड़ा का क्या जो महाभारत काल से चली आ रही है..कभी कर्ण के रूप मे कभी आज के अनाथालयों मे पलते बच्चों के रूप में………
विषय पर लिखना कठिन था क्यूंकि ये किसी प्रेमी या प्रेमिका के ह्रदय की विरह वेदना नहीं है जो शब्दों में उकेर दी जाए.. विषयवस्तु की ये पीड़ा तो अनंत कल से चली आ रही जिसकी अनुभूति हर गुजरते हुए दिन के साथ कटु और असह्य हो जा रही है..दूसरी तरफ इस पीड़ा के चित्रण में माँ की निर्विवाद सत्ता के चरित्र चित्रण के साथ भी न्याय करना था.. मैने अपना प्रयास किया है…………
इस पीड़ा को समझने का… माँ की निर्विवाद सत्ता से प्रश्न करने का..

माँ से कुछ सवाल-एक अनाथ के

माँ तू विश्वजननी है
तेरी महिमा से कैसे कर सकता इंकार
किताबों में पढ़ा,लोगों से सुना
माँ की ममता,माँ का त्याग,माँ की पीड़ा
ये सब तो सत्य है माँ,शाश्वत सत्य
फिर हे माँ कैसे मैं करूँ
तुमसे कुछ प्रश्न,
जिनकी पीड़ा है,
असीमित अपार……
माँ तेरी महिमा से कैसे कर सकता इंकार……

माँ अभी मै बच्चा हूँ,
अक्सर जब ठंढ लगती है,
या कोई तेज आवाज कानों को डरा जाती है,
तब ढूंढ़ता हूँ तुझको,
अनाथालय की सीढियों पर..
कभी कभी उस कूड़ेदान में भी,
जिसे मेरे साथ का बच्चा कहता है..
वो कूड़ेदान तेरी माँ है, तू उसमें ही मिला था..
हर बार माँ मेरी खोज,
कूड़ेदान से टकराकर,
अनाथालय की सीढियों पर वापस आ जाती है..
फिर भी माँ तेरे ममतामयी स्पर्श की अतृप्त इच्छा में
रात रात भर उस कूड़ेदान मे छिप जाता हूँ..
उस नश्तर सी चुभती ठंढक में भी,
तेरा कोमल स्पर्श पाता हूँ..
तेरे स्पर्श की इस मृगमरीचिका में भी
पाता हूँ मैं सुख अपार
माँ तेरी महिमा से कैसे कर सकता इंकार……

माँ मैं अब बड़ा हो रहा हूँ……
कूड़ेदान और माँ का फर्क,
इस दुनिया ने मुझे समझाया है..
तेरे पुत्र त्याग की विवशता का,
कुछ तो आभास कराया है…
पर माँ मैं तो तब निश्छल था..
फिर क्यूँ माँ बचपन का मेरे,
तूने आखिर संहार किया,
वो प्रेम समर्पण तेरा था,
फिर मेरा क्यों व्यापार किया..
मैं विकल विवश सा बैठा हूँ,
लेकर तेरा अनाम उपहार..
माँ तेरी महिमा से कैसे कर सकता इंकार……
माँ अब मैं बड़ा हो चुका हूँ…
शायद सूर्यपुत्र के सूतपुत्र होने का,
आधार चाहता हूँ…
माँ मैं कर्ण का वंशज,
अपना अधिकार चाहता हूँ..
हे माँ मुझको सूर्यपुत्र होने का,
अब दे दो अधिकार,
या एक बार फिर सूतपुत्र से,
कवच और कुंडल का,
कर लो व्यापार..
फिर भी तेरी महिमा की गाथा,
ये जग गाएगा बार बार..
माँ तेरी महिमा से कैसे कर सकता इंकार……
माँ तेरी महिमा से कैसे कर सकता इंकार……


बुधवार, 1 दिसंबर 2010

मरुस्थल

मन क्यों विह्वल है आज फिर?
यादों के उस मरुस्थल में,
यादें जो छोड़ चली थी ,
सपनो के उस कठिन भंवर में….


मन क्यों ढूढ रहा है?
रेत के आँशियाने को,
इन फूलों की महक में..
इन हवाओं की हलचल में..
मन क्यों विह्वल है आज फिर?
यादों के उस मरुस्थल में,


क्यों ये सोचता है?
कर देगा सबका उद्धार.
कर लेगा आत्मसाक्षात्कार..
भर देगा प्यार…
सबके अन्तःस्थल में…
मन क्यों विह्वल है आज फिर?
यादों के उस मरुस्थल में………


शनिवार, 20 नवंबर 2010

मुक्तिगीत


इस वसुधा में सन्नाटा है..
वो व्योम नजर नहीं आता है.
मेरे दुख के झंकृत तरंग को,
ये काल छिनने आया है...
शायद पथ के हमराही ने,
अब मुक्तिगीत को गाया है.
क्या अंतसमय अब आया है.....

तरु पर बैठा खेचर निढाल.
रवि का मस्तक हो गया लाल,
इस संध्या रागिनी बेला में,
ये कोलाहल क्यों समाया है...
आक्रांत रवि की किरणों से
क्या तुमने सिंदूर लगाया है??


इस दृग की सीमाओं ने जो,
अंतिम विश्वास लगाया था..
सर्वस्व समर्पण करने का,
जो राग प्रीत का गया था..
भुज पाश से निज मुक्ति दे कर,
सब कुछ का अर्घ्य चढ़ाया है......
क्या अंतसमय अब आया है...






पाताल में या स्वर्ग से,
इस जलधि के उत्सर्ग से...
उन्माद था जो बह गया..
स्तब्ध नीरव पत्थरों का,
मर्म बाकि रह गया...
इन पत्थरो का मर्म अब,
भगवान बन कर आया है.... (भगवान = शिवलिंग)
क्या अंतसमय अब आया है......




सोमवार, 8 नवंबर 2010

दिवाली का दीपक


दिवाली का दीपक


मैं दिवाली का दीपक हूँ..
अमर,
अनश्वर,
युगों युगों से..
इस विश्व का अंधकार मिटाने को,
हर साल जलाया जाता हूँ..
अपने अस्तित्व विवेचन में,
इश्वर पूजा ही पाता हूँ..........



मेरे पीड़ा के उजाले में,
खुशियों की ज्योति पलती है..
कहीं जल जल कर बुझ जाती है,
कहीं बुझ बुझ कर भी जलती है...
मेरे युग युग की पूजा का,
हे इश्वर मुझको दो प्रतिफल..
इस तिमिर विनाशक बेला में
जलना मेरा तुम करो सफल....





इश्वर ने मेरा सृजन किया
परहित का धर्म निभाने को..
इस अंधकार की सृष्टी को,
जल कर रोशन कर जाने को...

मैं तिमिर नाश कर सकता हूँ
ये अंतस का अँधियारा है
इस अंतस के अंधियारे का
हे प्रभु मेरे तुम नाश करो
मेरे जलने की पीड़ा का
कुछ तुम भी तो एहसास करो

मैं युग युग से जलता आया हूँ,
मैं युगों युगों जल जाऊंगा...
मैं दिवाली का दीपक हूँ,
मैं अपना धर्मं निभाऊंगा..








आशुतोष नाथ तिवारी"

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

जेहाद




जेहाद जेहाद जो करते है,जेहाद का मतलब क्या जाने?
ये रक्त पिपाशु दरिन्दे है,मानवता क्या है,क्या जाने?
इन्सान की बलि चढाते है,ये मजहब क्या है,क्या जाने?
ये झूठे मुस्लिम बनते है,इस्लाम का मतलब क्या जानें ?
कश्मीर मे हो या अमरीका,इनका तो इक ही नारा है,
हत्या ही हमारा पेशा है, हत्या ही धर्म हमारा है|
ये नर मुंडो की मस्जिद मे खूनी नमाज को पढ़ते है.
अपने पापों का प्रश्चित भी गोहत्या करके करते है |





















गौहत्या ये करवाते हैं.ये राष्ट्रधर्म को क्या जाने?
ये बाबर की औलादें हैं.., हिंदुत्व की गरिमा क्या जाने ??
कश्मीर ये हमसे ले लेंगे,इस दिवास्वप्न मे जीतें हैं...
कश्मीर हमारी गरिमा है,नामर्द मुजाहिद क्या जाने..
कुछ खैराती डालर से तुम.कितने भी बम बनवाओगे
गौरी अब्दाली भीख मिली,ब्रम्होश कहाँ से लाओगे ….
गौरी गजनी और शाहीन से कश्मीर भला क्या पाओगे,
तब बंगलादेश गंवाया था,अब पाकिस्तान गँवाओगे…



ये फिदायीन ये मानव बम, कुछ काम नहीं आ पायेंगे..
भों भों करते ये जेहादी कुत्ते..
शिव तांडव से क्या टकरायेंगे...
गर अबकी मर्यादा लांघी,तो अपनी कब्र बनाओगे ..
इकहत्तर मे था छोड़ दिया,इस बार नहीं बच पाओगे..


ऐ धूर्त पडोसी खुद देखो,
अपने आँगन की लाशों को
घुट घुट कर जो दम तोड़ रहे
उन बच्चो के एहसासों को
अब अपने कितने बच्चों की
तुम बचपन बलि चढाओगे
खुद की दुनिया तो जल ही गयी
क्या बच्चों को भी जलाओगे ………


इन नन्हे नाजुक हाथों में
कुछ गुड्डे गुडिया ला कर दो..
जेहाद, फ़िदायीन, मानव बम
ये नन्हा बचपन क्या जानें.........

जेहाद जेहाद जो करते है,जेहाद का मतलब क्या जाने?







"आशुतोष नाथ तिवारी"







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रविवार, 3 अक्तूबर 2010

अयोध्या का सेकुलर कवि और रामभक्त



पिछला १ हफ्ता काफी वयस्त रहा.. मगर मन राम मंदिर के निर्णय पर लगा हुआ था जैसा की हर हिन्दुस्तानी का था...कुछ सेकुलर लोग और खबरिया चैनल बार बार कहते रहे की अयोध्या मुद्दा ख़तम हो चुका है... अरे भाई अगर ख़तम हो चुका है तो ये अपना समाचार का भोपू बंद करो और कुछ और दिखाओ...
सच ये है की राम हमारे अन्दर ही विराजमान है और उस सत्ता को ख़तम करना इन तुस्टीकरण के पुजारियों और मैकाले के अनुयायियों के बस की बात नहीं...
फिर भी एक बार मैने भी सेकुलर बनने की कोशिश कर ही डाली...आज का तथाकथित सेकुलर (या आप उसे हिन्दू विरोधी कह लें............
काफी दिनों से अयोध्या पर कुछ लिखने की सोच रहा था सोचा सेकुलरिज्म के रंग मे लिख डालू कुछ राम पर.... लेकिन कुछ पंक्तियाँ लिखने के बाद मेरे अन्दर का राम भक्त बार बार मुझे उद्वेलित करता था.... वह मुझे याद
दिलाता था बाबर और औरन्जेब के अत्याचारों का... वह मुझे याद दिलाता था रानी पद्मिनी के जौहर से लेकर कश्मीरी पंडितों की व्यथा कथा... इसी द्वन्द के बिच लिखी है मैंने ये कविता.....





कश्मीर से अयोध्या तक
बस संगीनों का साया है
हे राम तुम्हारी नगरी में,
कैसा सन्नाटा छाया है...













ऐसी तो अयोध्या न थी कभी,
जहा मानवता की चिता जले..
इस मर्यादा की नगरी में,
सब खुद की मर्यादा भूले





हे राम तुम्हारी सृष्टी में
हैं कोटि कोटि गृह बसे हुए..
इस गर्भ गृह की रक्षा में,
आखिर अब कितनी बलि चढ़े...


इन लाशों के अम्बारों पर
बाबर और बाबरी बसतें हैं...
यहाँ हनुमान हैं कई खड़े...
जो राम ह्रदय में रखतें हैं...


इन विघ्नों के आवर्तों से
हम नहीं कभी अब तक हैं डरे...
हमने दधिची को पूजा है,
जो वज्र ह्रदय में रखतें हैं..

इस राम कृष्ण की धरती पर
हम भगवा ध्वज लहरायेंगे
ये हिन्दू धर्मं सनातन है
हम हिन्दू धर्म निभायेंगें

आहुति अब पूरी होगी
हम अश्वमेध को लायेंगे
जो जन्म भूमि है राम की...
वहां राम ही पूजे जायेंगे..

एक नहीं दो बार नहीं हर बार यही दोहरायेंगे
सौगंध राम की खाते हैं,हम मंदिर वहीँ बनायेंगे...
सौगंध राम की खाते हैं,हम मंदिर वहीँ बनायेंगे...



"आशुतोष नाथ तिवारी"

गुरुवार, 23 सितंबर 2010


“मेरी जिन्दगी”

मेरी जिन्दगी बादल के इक टुकडे की तरह,
कभी यहाँ कभी वहाँ |
न कोई घर,न कोई ठिकाना,
न कोई अपना,न कोई बेगाना!
कभी गरजने की चाह ,कभी बरसने का विश्वास,
कभी सूरज से कभी समंदर से,सबसे से है अपना रिश्ता निभाना|

इक पल लगता है,समस्त आसमान पर है…
अपना विस्तृत साम्राज्य,दूसरे पल बूंद बन कर बरस पड़ता हूँ,

फिर मुझको लगता है, अपना अस्तित्व भी बेगाना!
मैने देखा है सूरज की उन किरनों को भी ,
जिसके तेज से है,मनुष्य अब तक अनजाना!
फिर बूंद बन कर गुजरा हूँ,उन गलियों से उन पगडंडीयों से
जहा होता है बचपन सयाना !

मैं गुजरा हूँ उन आंधियो से भी,
जिसके आगे बडे बडे वृक्षों को पड़ता है,
झुक जाना……
और उस पहाड़ पर भी बनाता हूँ ठिकाना,
जो तोड़ता है इन आंधियो के अंहकार को,
जहाँ इन आंधियो को पड़ता है रुक जाना|
इन सब के बाद मेरे नियति मे लिखा है,
कुछ और भी,
मेरे बूंद रूपी अस्तित्व को सागर मे होता है,
मिल जाना…
फिर भी यह सोचता हूँ कि,
ठहरी हुई जिंदगी के लिये क्या पछताना!
अभी मुझे और आगे है जाना…
समंदर के बाद आसमान है अगला ठिकाना …..
समंदर के बाद आसमान है अगला ठिकाना …..

बुधवार, 22 सितंबर 2010

एहसास



जब दर्द का ही एहसास नहीं……
तो अश्रु को व्यर्थ निमंत्रण क्यों?

जब मन मे किसी के प्यार नहीं….
तो आँखों का मूक निमंत्रण क्यों??

जब हृदय का जुडा न तार कोई….
तो तन का ब्यर्थ समर्पण क्यों?

जब रिश्तो मे विश्वास नहीं….
तो शब्दों का आडम्बर क्यों?

जब सूरज मे ही आग नहीं….
तो चन्दा से अग्नि का तर्पण क्यों?

जब सभी के चेहरे विकृत है….
तो रिश्तो का झूठा दर्पण क्यों?

जब मरकर सबको शांति मिले….
तो जीवन से आकर्षण क्यों???

जब दर्द का ही एहसास नहीं……
तो अश्रु को व्यर्थ निमंत्रण क्यों?




"आशुतोष नाथ तिवारी"

सोमवार, 20 सितंबर 2010

वनवास


इक निःशब्द उच्छवाश
करता है ये एहसास …..
जैसे सभी के बीच रहते हुए,
किसी ने ले लिया है वनवास|

जैसे पिंजडे मे बंद पंछी..
फडफडाता है अपने पंखो को,
यह सोच कर..
की उडने को खाली पड़ा है,
विस्तृत आकाश|


इक निःशब्द उच्छवाश|



"आशुतोष नाथ तिवारी"

ठिठुरता बचपन



जाडे की सुनसान रात,हड्डियाँ गलाने वाली ठंढ
बर्फ सी वो सिहरन,
रात के सन्नाटे को चीरती हुए ट्रकों की आवाजे……..
इन सबके बीच मैने देखा एक छोटी सी लड़की.
अधफटे कपडे.चिथडो मे लिपटी…
कांपती ठिठुरती,अपने आप मे सिमटती,
वो छोटी से लड़की,सिसकती सिहरती|

फिर मैने देखा अपनी तरफ,
गरम कपडे ऊनी चद्दर,
सिर मे टोपी,पाव मे जूते.
अगर बाहर आया भी तो..
सिर्फ एक कप काफी के लिए|
मैने सोचा ये अंतर क्यों है?
पूरी रात यही सोचता रहा|
सुबह मैने कुछ भीड़ इक्कठा देखी,
कुछ लोग इकठ्ठा थे किसी को घेरे हुए.
मैं भी गया देखकर आंखे फटी रह गई..
यही थी वो लड़की ठीठुरती सिहरती…
मगर अब नहीं थी, वो सिहरन,न ही थी वो ठिठुरन,
क्योंकि वह दूर जा चुकी थी,बहुत दूर दुनिया से परे|
पास पडे थे कुछ अधजले टायर के टुकडे|
लोगो ने फेक रखे थे कुछ सिक्के उसे जलाने के लिये..
मैने भी एक सिक्का उछाला उसकी लाश पे,
और कहा……
इससे ला दो कुछ कपडे.इसकी छोटी बहन के लिये..
कल ऐसा न हो हमे इकठ्ठा करने पडे कुछ सिक्के,
उसके भी कफ़न के लिये……………..




..

"आशुतोष नाथ तिवारी"

शनिवार, 18 सितंबर 2010

राम मंदिर और कश्मीर





राम मंदिर:
पिछले कुछ दिनों से खबरिया चैनलों मे राम मंदिर का मुद्दा छाया हुआ है..कुछ अदालत अदालत की रट लगाये है तो कुछ लोग समझौता करने के लिये लगे हुए हैं..
एक सामान्य हिन्दू होने के कारण जो स्वाभाविक सी प्रतिक्रिया मेरी है की मंदिर वही बनना चाहिये.. राम हिन्दू आस्था के प्रतीक हैं...ठीक वैसे ही जैसे की मुह्हमद साहब मुस्लिम आस्था के...अब अगर मै यह सवाल उठाऊ की
मक्का मे मंदिर बनवानी चाहिये तो ये ब्यर्थ प्रलाप से ज्यादा कुछ नहीं....ठीक उसी तरह अयोध्या में बाबरी मस्जिद का औचित्य भी तो ब्यर्थ प्रलाप ही है...
अगर आज आप के घर मे कोई आ कर बाहुबल से आप की व्यवस्था को बदल देता है, तो क्या हम प्रतिरोध नहीं करते हैं... बाबर ने हमारे हिन्दुस्थान मे बाहुबल से अधिकार किया था...अपने बाहुबल से मंदिरों को तोड़ मस्जिद का रूप दे दिया ... तो क्या अब प्रतिरोध भी न करें ..........
मुझे या एक हिन्दू को किसी मस्जिद या चर्च से कोई प्रतिरोध नहीं है लकिन हमारे मंदिर की कीमत पर हमारे आस्था की कीमत पर स्वीकार नहीं..




.
आज की तथाकथित सेकुलर मीडिया और तुस्टीकरण करने के लिये लालायित, कुछ लाल किले के दलाल,जो दुर्भाग्यवश संसद में पहुच गयें हैं, हर भगवा पहनने वाले को हिन्दू आतंकवादी का नाम दे देतें है... अगर राम का नाम लेना आतंकवाद है तो हम आतंकवादी है ...अगर हिन्दुस्थान मे हिन्दू होना आतंकवाद है तो ८५% लोग आतंकवादी है..
सेकुलर वो लोग है जो कश्मीर मे कत्ले आम कर रहें है..सेकुलर वो है जिन्होने कश्मीरी पंडितो को अपने ही देश मे भटकने के लिये मजबूर कर रखा है...सेकुलर वो भी है जो वोट बैंक के लिये कार सेवकों पर गोली चलवाते है...इन सबके बाद हिन्दू प्रतिरोध को आतंकवाद और अतिवाद का नाम दिया जाता है...
हमने कश्मीर मे हिन्दुस्थान का झंडा जलाने वालों के लिये special development package बना रखा है... और भगवा पहनने वाली साध्वी के लिये special torture जेल.....
अंत मे बस दो पंक्तिया कहनी ही काफी है हिन्दू जनमानस की भावनाओं के लिये...


अतिशय रगड़ करे जो कोई
अनल प्रकट चन्दन से होई.....

चलिये हम सब राम मंदिर के निर्माण के लिये सात्विक और आहिंसक तरीके से अपना हरसंभव योगदान दें...

जय श्री राम
जय हिन्दुस्थान ..


"आशुतोष नाथ तिवारी"

अपना ख्याल रखना..

एक रिश्ता किसी की जिन्दगी से तो बड़ा नहीं हो सकता..
तुम्हारे साथ बिताये खुबसूरत पल हमेशा याद रहेंगे..
वादा करो की अब सिगरेट नहीं पियोगे
दवा की डिबिया तुम्हारी आलमारी के ऊपर रक्खी है..
समय पर दवाई लेते रहना..
वो सफ़ेद शर्ट की पाकेट पर इंक लगे कपड़े बदल देना..
कुछ दिनों बाद सब ठीक हो जाएगा..

वैसे भी दुनिया आज कल बहुत छोटी हो गयी है..
मोबाइल इन्टरनेट ईमेल ब्लॉग...
टच मे तो रहेंगे ही हम....
शायद कभी वक़्त ने चाहा,
तो घडी की सुई उलटी घूमे....
हमारी फिर कही मुलाकात हो..
हम फिर अजनबी हो जाएँ..
तब सब ठीक हो जाएगा..
ये जाते वक़्त रोना ठीक नहीं होता है..
अपना ख्याल रखना..
हो सके तो तब तक के लिये,
मुझे भूल जाना...
अपना ख्याल रखना.......



"आशुतोष नाथ तिवारी"

मैं भीष्म हूँ


मैं भीष्म हूँ
त्याग की प्रतिमूर्ति,
प्रतिज्ञा का पर्याय,

शर शैया पर पड़ा हूँ,
बाणों से बिंधा हुआ,
उस युग मे भी..
इस युग मे भी..
ये सारे शर,मेरे प्रिय के हैं,
प्रिय पुत्र अर्जुन के...


जिनका संधान सिखा था उसने,
अनवरत मेरी साधना से,
गुरु द्रोण की तपस्या से..

लेकिन कही नहीं था शामिल,
मेरे साधना में..या द्रोण की तपस्या में,
धर्म की रक्षा के लिये,
अधर्म को अपनाना
भीष्म को जितने के लिये
शिखंडी को कवच बनाना

लेकिन ये उपाय भी तो मैने ही बताया है..
धर्म की रक्षा के लिये,
इच्छा मृत्यु का वरदान गंगा से,
मैने ही तो पाया है.....

वो एक महाभारत था,
हर युग मे महाभारत होगा,
मगर,
मै भीष्म डर रहा हू आज,
सूर्य के उतरायण होने से..
मुझे मृत्यु का किंचित भय नहीं है...
मगर,
सूर्य उतरायण हुआ तो,
अब शिखंडियो की फ़ौज से कौन टकराएगा,
अगर मैने ये शारीर छोड़ दिया तो,
अर्जुन को विजय कौन दिलाएगा..
क्या इस युग मै भी
कोई गंगा से इच्छा मृत्यु का वरदान पायेगा???
मैं भीष्म हूँ...........



."आशुतोष नाथ तिवारी"

शनिवार, 3 जुलाई 2010

सपने की पीड़ा


इतना आसान नहीं है,
एक सपने को बुनना,
एक सपना देखना..
और उसके सच होने से पहले,उस सपने को तोड़ देना.
इतना आसान नहीं है,
टूटे सपने के लिये उदास होना..

मगर इतना आसान भी नहीं है,
उस सपने की वेदना को सहना,
एक रिसते घाव को,यूँ ही छोड़ देना..
उम्र भर रह रह कर उठती हुई,
उस घाव की टीस को साथ लिये रहना..
इतना आसान भी नहीं है...
इतना आसान नहीं है,अपने आप से भागना..
अपने हाथों से अपने जिस्म के..
किसी हिस्से को काटना..
मगर,
कोई रिसते घाव के साथ,कब तक जिये,
टूटे सपनो के लिए,कब तक पीड़ा सहे..
फिर भी सपने तो सपने होते हैं,
ये पहले भी आते रहें हें,
आगे भी बुने जायेंगे...
कुछ चेहरों को हंसी,
तो कुछ को अंतस की,अनन्त काल की पीड़ा दे जायेंगे...
इतना आसान नहीं है,
इस पीड़ा से पर पाना,
इतना आसान नहीं है,
जिन्दगी से हार जाना..



"आशुतोष नाथ तिवारी"