मनुष्य - परिष्कृत सृजन !
सत्य ने ओढ़ लिया
असत्य का आवरण।
भोग की इच्छा,
भौतिकता की लालसा,
धन का लोभ,
मनुष्य नहीं कर सका संवरण।
करने लगा अंधकार में विचरण।
प्रतिपल,
प्रतिक्षण,
हो रहा है ,एक द्रौपदी का,
चीरहरण!
सत्य ने ओढ़ लिया,
असत्य का आवरण।
बदल गयी हैं परिभाषाएं,
मान्यताए!
बदला बदला सा है,
मनुष्य का आचरण!
प्रकाश को छोड़ उसने
तिमिर का,
कर लिया,
वरण!
इश्वर भी आश्चर्य में हैं,
देखकर अपना परिष्कृत सृजन
धर्मं शरणम गच्छामि।
ब्रम्हं शरणम गच्छामि।
को छोड़कर,
मनुष्य ने ले ली है,
पाप और हिंसा,
की शरण।
चंद्रमा हो या पृथ्वी,
जहाँ भी पडे मनुष्य के चरण,
वह है हुआ,
अन्याय अत्याचार,
भीषण...
सत्य ने ओढ़ लिया
असत्य का आवरण।
सृष्टिकर्ता की जगह पाने को,
प्रकृति को झुठलाने को,
कर रहा है मनुष्य,
विभिन्न ग्रहों का विचरण!
क्या यही है इश्वर का परिष्कृत सृजन...
क्या यही है इश्वर का परिष्कृत सृजन????
बहुत अच्छी लगी रचना. मानव का विकास दूसरी तरफ हो रहा है.
जवाब देंहटाएंसुन्दर सृजन, बधाई.
जवाब देंहटाएंकृपया मेरे ब्लॉग" meri kavitayen" की नयी पोस्ट पर भी पधारें, आभारी होऊंगा.
वाह!!
जवाब देंहटाएंअद्भुत अभिव्यक्ति...
अनु
बहुत सामयिक चेतना का चिंतन देती रचना ।बधाई ।
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