रविवार, 27 जनवरी 2013

मरुस्थल

मन क्यों विह्वल है आज फिर?
यादों  के उस मरुस्थल  में,
यादें जो छोड़  चली थी ,
सपनो के उस कठिन भंवर  में….

मन क्यों ढूढ रहा है?
रेत के आँशियाने   को,
इन फूलों  की  महक में..
 इन हवाओं की हलचल में..

मन क्यों विह्वल है आज फिर?
यादों के उस मरुस्थल में,
क्यों ये सोचता है?
कर देगा सबका उद्धार.
कर लेगा आत्मसाक्षात्कार..
भर देगा प्यार
सबके अन्तःस्थल में

मन क्यों विह्वल है आज फिर?
 यादों के उस मरुस्थल में……….


शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

कुछ ऐसा करो प्राची

क्या लिखूँ इस कविता के के बारे मे: कल रात को अमृत पीने के बाद अपने आँसू  दीपक बाबा की आँखों मे देखकर भावनाओं ने शब्दों का रूप ले लिया । "वियोगी होगा पहला कवि" सोचकर भावनाओं के जंगल से निकले इन  शब्द रूपी फूलों को प्राची की माला के रूप में गूंथ कर बाबा के चरणकमल में समर्पित करने का एक छोटा सा प्रयास  ..   

कुछ ऐसा करो प्राची  जिससे ये लगे कीइन रगों का खून रुका नहीं है।
काट दो इन नसों को,
निकाल दो इक इक कतरा मेरे लहू का,
थाम लो इन नब्जों को,
पहरे बिठा दो इन धडकनों पे,
कुछ ऐसा करो की
किसी भी रास्ते से तुम्हारी याद आ न सके। 
इन सांसो को तब तक रोक दो,
जब तक तुम्हारी खुशबू जा न सके॥
इन धडकनों को तब तक बंद रखो,
जब तक तुम्हारा एहसास भुला न सके। 
चाहे इसमे,
मेरी जान ही क्यों न चली जाए,
मेरे खून का कतरा कतरा मिट जाए,
चाहे ये नब्ज़ हमेशा के लिये रुक जाए॥ 
मगर कुछ कुछ ऐसा करो प्राची 

मै इंतजार करूँगा..
उस अस्तित्वविहीन भौतिक जीवन का,
बरसो सदियों या कई जन्मों,
मै इंतजार करूँगा
क्यूकि मुझे जीना है,
बिना तुम्हारे एहसास के.
सिर्फ अपनी धडकनों के साथ,
सिर्फ अपने ख्वाबो के साथ॥
ये मेरी मृगमरीचिका ही सही,
मगर कुछ ऐसा करो प्राची,
जिससे मुझे एहसास होमेरे अपने होने का..
कुछ ऐसा करो प्राची,
जिससे सिर्फ और सिर्फ मेरे ख्वाब और मेरी सांसे मेरे पास हो॥ 
तुम तो जानती थी न, की 
जमीर यूँ ही नहीं सुन्न होता ..
क्योंकि उसे पता होता है -
सुन्न होने की अगली स्थिति क्या होगी..
जानती हो न प्राची..                                            अंतिम पंक्तिया : (साभार) बाबा 

कुछ ऐसा करो प्राची॥ 

मंगलवार, 20 नवंबर 2012

सपनो का शहर


सपनो के शहर में क्या पाओगे ?
यहाँ अपने भी बेगानें हैं। 
कुछ दूर तो बस्ती जंगल है,
फिर दूर तलक वीरानें हैं॥                  
                     
                                           एक चिराग को बुझते देखा तो,
                                           
सोचा कुछ दीप जलानें है। 
                                           
यहाँ दीप जलाता कोई नहीं,
                                           
सब शम्मा के परवानें हैं।।  


कुछ दूर चला इसमे तो पाया,
इस शहर के क्या अफसानें है
यह याद दिलाता है अक्सर,
कुछ जख्म जो बहुत पुरानें हैं।।

                                           चलते ही जाना होगा मुझे,
                                           आगे कुछ लोग भी आनें हैं। 
                                            
शायद उनसे मिलके ही मुझे,
                                            लिखने कुछ नये तरानें हैं।। 
  
कुछ लोग मुझे ये कहते हैं,
यहाँ लोग सभी दीवाने हैं। 
कल उसे याद कर रोएंगे,
जो मंजर आज सुहानें हैं।।  
    
              

                                    फिर भी यह सोच कर चलता हूँ,
                                    मै पाऊंगा  उस मंजिल को।
                                    जिस जगह पे खुशियाँ मिलती हैं,
                                     जहाँ 
सपने सभी सुहानें हैं।।  


मंगलवार, 4 सितंबर 2012

व्यथा कथा



किसको बोले किसे बताएं,
सबकी अपनी अपनी है व्यथा कथाएं॥
परछाइयों के ख्वाब में ,कुछ गम हुए ऐसे फकत,
हो चुकी है रात पर हम खड़े हैं,नजरे बिछायें॥
अरसा हुआ अब आता नहीं, कोई दिल के इस बाजार में,
एक दिन अचानक क्यों ये लगा,तुम सामने हो नजरे झुकाये॥
सोचा बहुत, ढूंढा बहुत, अब हो चुकी राते बहुत,
आओ किसी दरख़्त में ख्वाबो की कुछ शम्मा जलायें॥
ख्वाहिश तो थी जीने की पर,जीने से अब लगता है डर
ले लो हमारी जान
, शायद मरकर किसी को याद आयें॥
किसको बोले किसे बताएं…..  

बुधवार, 18 जुलाई 2012

हमराही



जीवन रूपी शांत सफर के राहों में.
एक दिन तुम मुझे यूँ मिल गयी,
जैसे फूलों को खुशबू, चाँद को चांदनी
मुझको मेरी कल्पना मिल गयी|

बहुत ढूंढा किया था,मैने तुझको अपने ख्वाबो में,
अचानक ही तू मेरे जीवन में बस गयी|
मुझे कुछ यूँ हुई अनुभूति तुम्हारे मिलन की..
जैसे मुझे समंदर में मोती वाली सीप,मिल गयी|

सोचा था बहुत कुछ कहना है तुझसे मिलने पर,
तुझे देखकर शब्दों की कमीं पड़ गयी..
अब तो तेरी आँखों को मैने आइना बना लिया,
शायद उसमे मुझे मेरी झलक मिल गयी|