शुक्रवार, 22 जनवरी 2016

मैं एक हारा हुआ जुवारी .
या रिश्तों की भीख का व्यापारी??
याद है मुझे,
जब अचानक मेरी झोली में.
अर्पित हुआ था तुम्हारे प्रेम का दान.
और दक्षिणा में था मिला,
कुछ फेरों का वरदान..
मुझे पता नहीं उस ऋतु में,
गुलमोहर पर फूल आये थे या नहीं...
मगर कोयल की आवाज मूक थी
शायद मौसम में तेज धूप थी.....
एक खुशबू सी थी कहीं,जो
मेरे आत्मा तक गयी थी.
शायद उस कपूर जैसी
जो था भगवान को अर्पित
पवित्र,सुगन्धित,द्वेषरहित
मगर रिश्तों के व्यापार में
ये विस्मृत था की
"प्रेम के उपवन में सिर्फ,
भावना का बीज लहलहाता है.
सुख का दुर्भिक्ष भूखे इंसान को,
वक्त की धूप में खीच लाता है.."
समय की धूप पड रही है.
शायद गुलमोहर में,
नयी कलियाँ खिल रही हैं..
मेरे साथ आओ देखो धूप कितनी तेज है
कभी कभी असह्य झुलसाने वाली...
सुना है इतनी धूप में,
कोई फूल नहीं खिलता
मगर गुलमोहर वही खड़ा है
निश्चल एकाकी शांत,
फूलो से भरा..
मंदिर में अर्पित कपूर,
समय की धूप में,
धीरे धीरे उड़ रहा है.
भीख का व्यापारी अचंभित है..
मूर्त को अमूर्त बना कर,
इश्वर कैसा न्याय कर रहा है????

आशुतोष की कलम से

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