बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

निर्मल वर्मा की"जलती झाड़ी"

अभी कुछ दिनों पहले की बात है..
शनिवार का दिन था..
दफ्तर के कार्यकलाप से छूट्टी थी,
आज पीनी मुझे साहित्य की घुट्टी थी..
आलमारी से पद्म विभूषण निर्मल वर्मा की,
"जलती झाड़ी" पुस्तक निकाल लाया ,
साहित्य सुधा के अपार सागर में..
मैने दो-एक डुबकियाँ था लगाया...
चंद पृष्ठों के बाद..
मेरा दूरभाष घनघनाया,
मेरे वरिष्ठ अधिकारी ने,
मेरे साहित्य रस पान पे था ब्रेक लगाया .....
साहब ने मुझे,
संस्था की मुख्य शाखा पर था बुलवाया ...
साथ में पूरे साल का,
लेखा जोखा भी मंगवाया...
मैं थोडा सहमा,थोडा घबराया,
जल्दी ही संयत होते हुए,
विमानतल की ओर कदम बढाया..

रास्ते में मुझे,
सफ़र के लम्बे होने का ध्यान आया.
अफ़सोस हुआ "जलती झाड़ी" भी जल्दबाजी में
मैं घर ही भूल आया
तभी जहन में ये ख्याल आया,
मैं हिंदुस्तान की राजधानी में हूँ श्रीमान..
विमानस्थल पर खरीद लूँगा..
निर्मल की "जलती झाड़ी" या प्रेमचन्द्र की गोदान....
ये सोच कर मैं मन ही मन मुस्कराया..
अब जा कर मेरी साहित्यिक बेचैनी को,
थोडा चैन आया ..
विमानतल पर पंहुचा ,
कुछ खुबसूरत चेहरों ने..
थोडा मुस्कराकर,कुछ स्वागत शब्द सुनाकर ,
अन्दर जाने का रास्ता बतलाया ...
इन सबके बिच मेरा मस्तिष्क ढूंढ़ रहा था,
निर्मल जी की "जलती झाडी" का साया...
अन्दर गया,पास में था एक पुस्तक क्रय केंद्र,
वहां पहुंचा तो अपने आप को,
पुस्तकों से घिरा पाया...
पर ये क्या???
कुछ के नाम शायद पढ़ सकता था..
कुछ के नाम भी नहीं पढ़ पाया.....
ये सब विदेशी अंग्रेजी किताबें थी..
जिनमें थी निहित
शेक्सपीयर और केट्स की माया...

हिम्मत की थोडा और आगे बढ़ा,
अंग्रेजी स्टाइल में था एक देसी सेल्समैन खड़ा
मैं भी गया और अंग्रेजी झाड़ी...
बोला "कैन आई गेट निर्मल वर्मा की जलती झाडी"
सेल्समैन ने सर उठाया..
कुछ इस तरह से मुझे देखा जैसे..
मैकाले के इस देसी भारत में..
ये परदेशी गाँधी कहाँ से आया????

थोडा मुस्कराकर उसनें फ़रमाया ,
सर"जलती झाडी' पे डालो पानी..
पढना शुरू करो अब,
विलियम वर्ड्सवर्थ की कविता रूमानी..
मैं बोला भईया मैं हूँ ..
गांव वाला सीधा साधा हिन्दुस्तानी,
अगर नहीं है निर्मल जी की "जलती झाडी"
तो दे दो मुझको,
मुंशी प्रेमचंद्र की कोई कहानी..

अब सेल्समैन का पारा थोडा ऊपर चढ़ा
उसने कहा अगर प्रेमचंद्र को पढना है.
तो एअरपोर्ट पर तू क्यों है खड़ा???
जा किसी आदिवासी स्टेशन पर,
वहीँ मिलेगा तुझे ये हिंदी का कूड़ा...
खैर,मैं जैसे तैसे पुस्तक क्रय केंद्र से बाहर आया,
सोचा,ये दुनिया का है इकलौता देश महान..
जहाँ नहीं मिलता मातृभाषा को सम्मान..
कभी सेकुलरिज्म की चक्की में,
पिसतें है हिन्दू..
तो कभी हिंदी का होता है..
हिंदूस्थान में ही अपमान...

अब मुझे आगे था जाना..
सामने खड़ा था वायुयान
अनायास ही याद आये,
भारतेंदु जी और उनका नारा
" बोलो भैया दे दे तान,हिंदी हिन्दू हिंदूस्थान"....

आइये हम सभी सोचें..
हिंदी और हिन्दू तो अब तक,
झेल रहें हैं मैकाले की गुलामी..
क्या अगले गुलामी क्रम में होगा
हम सब का हिंदूस्थान ????

चलिये जाते जाते एक बार फिर
कम से कम दोहरा लें .
" बोलो भैया दे दे तान,हिंदी हिन्दू हिंदूस्थान" ......

“मेरा भारत महान”

30 टिप्‍पणियां:

  1. अच्‍छी रचना। वास्‍तविकता को उजागर करती रचना। हमारे देश में न जाने कितने साहित्‍यकार हुए हैं जिन्‍होंने कालयजी रचना रची है लेकिन विदेशी लेखकों के लिखे के पीछे लोग भागते हैं। एक सच यह भी है कि लोगों में कविता या साहित्‍य की समझ भले ही न के बराबर हो पर वे अपने घरों के 'स्‍टडी रूम' को विदेशी साहित्‍यकारों की पुस्‍तकों से सजाकर रखना शान समझते हैं। मैं ये नहीं कहता कि अंग्रेजी में लिखे साहित्‍य स्‍तरीय नहीं होते लेकिन क्‍या शिवाजी सावंत के 'मृत्‍युंजय' का और धर्मवीर भारती के 'गुनाहों के देवता' का मुकाबला कोई कर सकता है। मैं गजानन माधव मुक्तिबोध और पदुमलाल पुन्‍नालाल बख्‍शी की धरा से हूं, उनकी रचनाओं यथा मुक्तिबोध जी की 'अंधेरे में' और बख्‍शी जी की 'क्‍या लिखूं' का भी क्‍या कोई मुकाबला है।
    माफी चाहता हूं कि निर्मल वर्मा जी की जलती झाडी के बारे में मैंने नहीं पढा लेकिन इतना जरूर कह सकता हूं कि निर्मल वर्मा जी ने भी कई कालजयी रचना रची है। अब आपका पोस्‍ट पढने के बाद इस पुस्‍तक को पढने की ललक जग गई है और मैं नेट में इसे तलाशूंगा।
    एक बार आपका धन्‍यवाद, कि मेरे मेल पर इतनी रचना पहुंची और मुझे इसे पढने का सौभाग्‍य मिला।
    कभी वक्‍त मिले तो मेरे ब्‍लाग पर आकर मेरा उत्‍साहवर्धन जरूर करें।
    अतुल श्रीवास्‍तव

    जवाब देंहटाएं
  2. धन्यवाद श्रीमान जी ..............
    एकदम एंडी स

    जवाब देंहटाएं
  3. वाआआह ! बहुत खूब लिखा आशुतोष जी आपने , हिंदुस्तान में हिंदी की दुर्दशा पर करारा व्यंग, बहुत पसंद आया मित्रवर!

    जवाब देंहटाएं
  4. @ albela khatri ji
    @ anil atri
    @ anand dwivedi
    कृति पसंद करने के लिये धन्यवाद..
    @Atul Shrivastava ji
    आप के समय एवं उत्साहवर्धन का आभार जिस विश्लेषण के साथ आप ने प्रतिक्रिया दी

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत अच्छी रचना | पढ़ते पढ़ते आपकी जगह खुद को खड़ा पाया |

    जवाब देंहटाएं
  6. आशुतोषजी ,हिंदी साहित्य की ऐसी अवहेलना सिर्फ हिंदुस्तान में ही सम्भव हे --क्योकि आज की पीढ़ी अग्रेजी की गुलाम हे --हम भले ही स्वतंत्र हो जाए पर हमारी मानसिकता आज भी गुलाम हे --हम कब इन जंजीरों से आज़ाद होगे --?
    बचपन में कही पढ़ा था--" हिन्दियो में बू रहेगी जब तलक ईमान की
    देग लन्दन तक चलेगी तख्त हिन्दुस्तान की |"

    जवाब देंहटाएं
  7. हिंदी की सेवा का प्रशंसनीय जज्‍बा.

    जवाब देंहटाएं
  8. आशुतोष जी, अपनी इस कविता में आपने परस्पर विपरीत और उसकी द्वंद्वात्मकता को रचने की जो कोशिश की है, वह आकर्षक बन पड़ी है और प्रभावित करती है |

    जवाब देंहटाएं
  9. बहुत अच्छा
    निरंतरता बनाये रखना

    जवाब देंहटाएं
  10. अपने ही देश में अपनी भाषा के साहित्य की अवस्था का बहुत सटीक चित्रण..सुन्दर

    जवाब देंहटाएं
  11. एक बेहतरीन रचना जो आपके सुसंस्कृत व्यक्तित्व और प्रबुद्ध सोच का परिचय देती है ! अपनी धरा पर हमारे ही उच्च कोटि के साहित्यकारों की जैसी अवमानना होती है वह अन्य किसी देश में वहाँ के साहित्यकारों के साथ कभी नहीं हो सकती ! कब हम अपने देश, अपनी भाषा और अपनी संस्कृति पर अभिमान करना सीखेंगे ! बहुत ही बढ़िया आलेख ! बधाई एवं शुभकामनायें !

    जवाब देंहटाएं
  12. अपने ही देश में अपनी भाषा के साहित्य की अवस्था का बहुत सटीक चित्रण.सुन्दर !

    जवाब देंहटाएं
  13. aapka blog padha yatharth ka sachha chitran kiya ha aapne ... shubhkaamnaaye

    जवाब देंहटाएं
  14. सच के करीब है आपकी यह पोस्ट।

    जवाब देंहटाएं
  15. भई वाह...क्या लिखा है बहुत अच्छा लगा पढ़कर...

    जवाब देंहटाएं
  16. bahut hi achha vyangya likha hai aapne....achha laga padhkar....dhayanwad ek achhi rachna ko padhne ka mauka dene ke liye

    जवाब देंहटाएं
  17. सटीक व्यंग.
    आप की कलम को शुभ कामनाएं.

    जवाब देंहटाएं
  18. आप सभी प्रबुद्ध जनों को धन्यवाद... इस कविता की भावना को समझने के लिए...
    आशा है मेरे इस प्रयास से कुछ हिंदी के प्रचार प्रसार में छोटा सा ही सही योगदान मिले...

    जवाब देंहटाएं
  19. batut khub apne hindi sahityakaron ke dard ko haste hue kavita me piroa he.

    bhawna newaskar

    जवाब देंहटाएं
  20. "मैकाले के इस देसी भारत में..
    ये परदेशी गाँधी कहाँ से आया????"

    aisa lagta hai kabhi kabhi...:))
    bahut achha likha hai aapne..badhaiyan..:))

    जवाब देंहटाएं
  21. तभी तो कहते हैं मेरा भारत माहन.
    यहाँ हिंदी नहीं अंग्रजी बिकती है.
    अच्छी कविता के लिए साधुवाद .

    जवाब देंहटाएं
  22. kafi sundarta se bebas hindi ki majboori ko darsaya hai aapne bahut sandar chot hai hum sab par jo hindi ko ......

    जवाब देंहटाएं

ये कृति कैसी लगी आप अपने बहुमूल्य विचार यहाँ लिखें ..